बुधवार, 25 मई 2016

पाठ्यक्रम (करिकुलम)

औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यक्रम/करिकुलम (उच्चारित/kəˈrɪkjʉləm/; बहुवचन: पाठ्यक्रमों - करिकुलाIPA/kəˈrɪkjʉlə/ या करिकुलम्स), विद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रदान किये जाने वाले पाठ्यक्रमों और उनकी सामग्री को कहते हैं। एक विचार के रूप में पाठ्यक्रम की उत्पत्ति रेस कोर्स के लिए लैटिन शब्द से होती है जिसका सन्दर्भ उन कार्यों एवं अनुभवों से है जिनके माध्यम से बच्चे विकसित होकर परिपक्व वयस्क बनते हैं। पाठ्यक्रम निर्देशात्मक होता है एवं अधिक सामान्य सिलेबस पर आधारित होता है जो केवल यह निर्दिष्ट करता है कि एक विशिष्ट ग्रेड या मानक प्राप्त करने के लिए किन विषयों को किस स्तर तक समझना आवश्यक है।

ऐतिहासिक संकल्पना[संपादित करें]

सदिश पाठ्यक्रम
1918 में इस विषय पर प्रकाशित प्रथम पुस्तक द करिकुलम में[1] जॉन फ्रेंकलिन बौबिट ने कहा कि एक विचार के रूप में पाठ्यक्रम की जड़ें रेस-कोर्स के लिए लैटिन शब्द में है और पाठ्यक्रम का वर्णन ऐसे कार्यों एवं अनुभवों के रूप में किया है जिनके माध्यम से बच्चे अपेक्षित वयस्क के रूप में विकसित होते हैं ताकि वयस्क समाज में सफलता प्राप्त की जा सके. इसके अलावा, पाठ्यक्रम में केवल विद्यालय में होने वाले अनुभव ही नहीं बल्कि विद्यालय एवं उसके बाहर होने वाले गठन कार्य एवं अनुभव अपनी संपूर्णता में समाहित होते हैं; वे अनुभव जो अनियोजित और अनिर्दिष्ट रहे हैं और वे अनुभव भी जिन्हें समाज के वयस्क सदस्यों के उद्देश्यपूर्ण गठन की दिशा में जानबूझकर कर प्रदान किया गया है। (Cf. छवि दाहिनी ओर है)
बौबिट के लिए पाठ्यक्रम एक सामाजिक इंजीनियरिंग का क्षेत्र है। उनके सांस्कृतिक अनुमान एवं सामाजिक परिभाषाओं के अनुसार उनके पाठ्यक्रम निर्माण के दो उल्लेखनीय लक्षण हैं: (i) वैज्ञानिक विशेषज्ञ अपने इस विशेष ज्ञानके आधार पर कि समाज के वयस्क सदस्यों में क्या गुण होने चाहिए एवं कौन से अनुभव ऐसे गुण उत्पन्न करेंगे, वे पाठ्यक्रमों का निर्माण करने हेतु योग्य होंगे तथा यही न्यायसंगत भी होगा और (ii) पाठ्यक्रम को ऐसे कार्य-अनुभवों के रूप में परिभाषित है जो छात्र को अपेक्षित वयस्क बनने के लिए उसके पास होने चाहिए.
इसलिए, उन्होंने पाठ्यक्रम को लोगों के चरित्र का निर्माण करने वाले कार्यों एवं अनुभवों की ठोस वास्तविकता के स्थान पर एक आदर्श के रूप में परिभाषित किया है।
पाठ्यक्रम संबंधित समकालीन विचार बौबिट के इन तत्वों को अस्वीकार करते हैं, परंतु इस आधार को यथावत रखते हैं कि पाठ्यक्रम अनुभवों का दौर है जो मानव को व्यक्ति बनाता है। पाठ्यक्रमों के माध्यम से वैयक्तिक गठन का व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर (अर्थात सांस्कृतिक एवं सामाजिक स्तर पर) पर अध्ययन किया जाता है; उदाहरण के लिए पेशेवर गठन, ऐतिहासिक अनुभव के माध्यम से शैक्षिक अनुशासन). एक समूह का गठन उसके व्यक्तिगत प्रतिभागियों के गठन के साथ ही होता है।
यद्यपि औपचारिक रूप से यह बौबिट की परिभाषा में दिखाई दिया है, रचनात्मक अनुभव के रूप में पाठ्यक्रम की चर्चा को जॉन डेवी के कार्य में भी देखा जा सकता है (जो महत्वपूर्ण मामलों पर बौबिट से असहमत थे). हालांकि बौबिट और डेवी की "पाठ्यक्रम" के विषय में आदर्शवादी समझ शब्द के वर्तमान प्रतिबंधित उपयोगों से अलग है, पाठ्यक्रम लेखक और शोधकर्ता आम तौर पर इसे पाठ्यक्रम की एक समान तथ्यात्मक समझ के रूप में देखते हैं।[2][3]

औपचारिक स्कूली शिक्षा में पाठ्यक्रम[संपादित करें]

औपचारिक शिक्षा या स्कूली शिक्षा (cf. शिक्षा) में एक पाठ्यक्रम, किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रदान किये जाने वाले पाठ्यक्रमों, पाठ्यक्रम संबंधी कार्यों और उनकी सामग्री को कहते हैं। एक पाठ्यक्रम को किसी बाह्य, आधिकारिक संस्था (जैसे कि, अंग्रेजी स्कूलों में नेशनल करिकुलम फॉर इंग्लैंड) द्वारा आंशिक अथवा पूर्ण रूप से निर्धारित किया जा सकता है। अमेरिका में प्रत्येक राज्य व्यक्तिगत स्कूल जिलों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम को स्थापित करता है[4]. हालांकि प्रत्येक राज्य संयुक्त राज्य अमेरिका शिक्षा विभाग द्वारा चयनित राष्ट्रीय[5] अकादमिक विषय समूहों की व्यापक भागीदारी से अपने पाठ्यक्रम तैयार करता है। उदाहरण के लिए, गणित की शिक्षा के लिए गणित शिक्षकों की राष्ट्रीय परिषद् (एनसीटीएम). ऑस्ट्रेलिया में हर राज्य का शिक्षा विभाग, 2011 में एक राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के लिए योजनाओं के साथ पाठ्यक्रम स्थापित करता है। यूनेस्को के अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा ब्यूरो का प्राथमिक मिशन है, दुनिया भर में पाठ्यक्रमों का अध्ययन करना और उनके क्रियान्वयन पर नजर रखना.
पाठ्यक्रम[6] के दो अर्थ हैं: (i) वे पाठ्यक्रम जिनमें से छात्र अपनी पसंद के विषय चुनते हैं और (ii) एक विशिष्ट शिक्षा कार्यक्रम. बाद वाले मामले में पाठ्यक्रम, अध्ययन के लिए दिए गए कोर्स की शिक्षा, ज्ञान और उपलब्ध मूल्यांकन सामग्री का सामूहिक वर्णन करता है।
वर्तमान में, एक सर्पिल (स्पाइरल) पाठ्यक्रम को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसके माध्यम से छात्र अध्ययन किये जा रहे विषयों की सामग्री को विकास के विभिन्न स्तरों पर आंक सकेंगे. टायकोइल पाठ्यक्रम का रचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तावित करता है कि शैक्षणिक वातावरण के साथ सक्रिय भागीदारी के माध्यम से बच्चे उत्तम रीति से सीखते हैं, अर्थात खोज द्वारा सीखना. पाठ्यक्रम के लिए महत्वपूर्ण है कोर्स के उद्देश्य जो आम तौर पर सीखने के परिणामों के रूप में दर्शाए जाते हैं और जिनमे सामान्यतः कार्यक्रम की मूल्यांकन रणनीति शामिल होती है. ये परिणाम और मूल्यांकन, इकाईयों (या माड्यूल) के रूप में वर्गीकृत किये जाते हैं और इसलिए पाठ्यक्रम ऐसी इकाईयों का एक संग्रह होता है, जहां प्रत्येक इकाई में पाठ्यक्रम के विशिष्ट एवं निश्चित हिस्से शामिल होते हैं। तो एक सामान्य पाठ्यक्रम में संचार, संख्यात्मक कार्य, सूचना प्रौद्योगिकी और सामाजिक कौशल की इकाईयां शामिल होती हैं और प्रत्येक के लिए विशिष्ट शिक्षण प्रदान किया जाता है।
सोवियत और रुसी विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में कोर करिकुलम को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था। इस तस्वीर में, एक छात्र कक्षाओं के पहले दिन विश्वविद्यालय के मुख्य अनुसूची बोर्ड के पास आता है, यह देखने के लिए कि वह और उसकी विशेषज्ञता (सब-मेजर) वाले अन्य सभी छात्र इस सत्र में किन कक्षाओं में भाग लेंगे.

संयुक्त राज्य अमेरिका में पाठ्यक्रम के प्रकार[संपादित करें]

कई शिक्षण संस्थान वर्तमान में दो परस्पर विरोधी ताकतों में संतुलन स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक ओर कुछ का मानना है कि सभी छात्रों के ज्ञान की नींव को एक समान होना चाहिए, समान प्रकार के पाठ्यक्रम के रूप में; वहीँ दूसरी ओर अन्य चाहते हैं कि छात्रों के पास अपनी पसंदीदा शिक्षा प्राप्ति का अधिकार होना चाहिए, इसके लिए वे शुरुआत में ही किसी विषय में विशेषज्ञता प्राप्त करने की कोशिश कर सकते हैं या अपनी पसंद के हिसाब से अपने विषयों को चुन सकते हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय द्वारा अपनी मुख्य आवश्यकताओं का पुनर्गठन किये जाने के कारण यह तनाव काफी चर्चा में रहा है।
प्रत्येक कोर्स की पूर्व-आवश्यकताओं की पहचान, पाठ्यक्रम डिजाइन की एक अनिवार्य विशेषता है जिसे हर कॉलेज सूची एवं विद्यालयी शिक्षा के हर स्तर पर देखा जा सकता है। इन आवश्यकताओं को विशेष पाठ्यक्रमों द्वारा पूर्ण किया जा सकता है और कुछ मामलों में परीक्षा द्वारा या कार्य अनुभव द्वारा भी इसे पूर्ण किया जा सकता है। सामान्यतः किसी भी विषय में अधिक उन्नत पाठ्यक्रमों के लिए कुछ बुनियादी पाठ्यक्रमों की नींव की आवश्यकता होती है, लेकिन कुछ कोर्सेज में अन्य विभागों में अध्ययन की आवश्यकता होती है, जैसे कि भौतिकी में विशेषज्ञता प्राप्त करने के लिए गणित की कुछ कक्षाएं आवश्यक हैं या साहित्य, संगीत अथवा वैज्ञानिक शोध के छात्रों के लिए भाषा प्रवीणता की आवश्यकता. एक अधिक विस्तृत पाठ्यक्रम को बनाते समय किसी पाठ्यक्रम के भीतर रखे गए प्रत्येक विषय की पूर्व-आवश्यकताओं का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिए. एक बार विषयों के बीच आपसी निर्भरता ज्ञात हो जाने पर, कोर्स की व्यवस्था और समयावधि की समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं।

मुख्य पाठ्यक्रम[संपादित करें]

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core curriculum को विक्षनरी,
एक मुक्त शब्दकोष में देखें।
शिक्षण में एक मुख्य पाठ्यक्रम, एक पाठ्यक्रम अथवा अध्ययन का कोर्स होता है जिसकी भूमिका को केंद्रीय माना जाता है तथा जिसे आमतौर पर एक स्कूल या स्कूल पद्धति के सभी छात्रों के लिए अनिवार्य रूप से लागू किया जाता है। हालांकि, हमेशा ही ऐसा नहीं होता है। उदाहरण के लिए, कोई स्कूल संगीत संबंधी कक्षा को अनिवार्य कर सकता है लेकिन यदि छात्र यदि आर्केस्ट्रा, बैंड, कोरस इत्यादि जैसी किसी प्रदर्शन संबंधी संगीत में भाग लेते हैं तो वे इससे बाहर रहने का चुनाव कर सकते हैं। प्रमुख (कोर) पाठ्यक्रम को अक्सरप्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर स्कूली बोर्ड, शिक्षा विभाग या शिक्षा का कार्य देखने वाली अन्य प्रशासनिक संस्थाओं द्वारा स्थापित कर दिया जाता है।

प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में[संपादित करें]

संयुक्त राज्य अमेरिका में "कॉमन कोर स्टेट स्टेंडर्ड इनिशिएटिव (एक सरकारी पहल)" राज्यों को एक प्रमुख पाठ्यक्रम अपनाने और उसका विस्तार करने के लिए प्रोत्साहित करती है। इस समन्वय का उद्देश्य राज्यों में समान पाठ्यपुस्तकों के अधिक उपयोग और न्यूनतम स्तर की शिक्षा प्राप्ति में और अधिक समानता को बढ़ावा देना है। 2009-10 में राज्यों को इन मानकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन के रूप में संघ के 'रेस टू दी टॉप' कार्यक्रम से धन मुहैया करवाने की संभावन का आश्वासन दिया गया।

उच्च शिक्षा में[संपादित करें]

कई कॉलेज और विश्वविद्यालय प्रशासन एवं फैकल्टी कभी-कभी स्नातक स्तर पर कोर पाठ्यक्रम को अनिवार्य कर देते हैं, विशेष रूप से लिबरल आर्ट्स में. छात्रों द्वारा अध्ययन किये जा रहे प्रमुख विषयों की गहराई तथा अधिक विशेषज्ञता के कारण, उच्च शिक्षा के एक सामान्य कोर पाठ्यक्रम में हाई स्कूल अथवा प्राथमिक स्कूल की अपेक्षा छात्रों के अध्ययन संबंधी कार्यों को काफी कम मात्रा में निर्धारित किया जाता है।
अमेरिका के प्रमुख कॉलेजों के प्रमुख पाठ्यक्रम कार्यक्रमों (कोर करिकुला प्रोग्राम्स) में से सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं विस्तृत कार्यक्रमों में, कोलंबिया विश्वविद्यालय के कोलंबिया कॉलेज तथा शिकागो विश्वविद्यालय का नाम आता है। बिना किसी उन्नत विशेषज्ञता के भी इन दोनों को पूर्ण करने में दो साल तक का समय लग सकता है और इन्हें कई प्रकार के शैक्षणिक विषयों में महत्वपूर्ण कौशल के विकास हेतु बनाया गया है, जैसे कि: सामाजिक विज्ञान, मानविकी, भौतिक और जैविक विज्ञान, गणित, लेखन और विदेशी भाषाएं.
1999 में शिकागो विश्वविद्यालय ने अपने कोर पाठ्यक्रम की सामग्री को घटाने और संशोधित करने की योजना की घोषणा की, जिसमे शामिल था आवश्यक पाठ्यक्रमों की संख्या 21 से घटाकर 15 करना और विषयों की एक और अधिक व्यापक श्रृंखला को प्रदान करना. जब न्यूयॉर्क टाइम्सद इकोनोमिस्ट और अन्य प्रमुख समाचार पात्रों ने इस कहानी के बारे में छापना शुरू किया, यह विश्वविद्यालय शिक्षा पर राष्ट्रीय बहस का एक केन्द्र बिन्दु बन गया। द नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ स्कॉलर्स ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि, "शिकागो विश्वविद्यालय द्वारा अपने बेहतरीन स्नातक कोर पाठ्यक्रम का यह परित्याग वाकई काफी निराशाजनक है, जो एक लंबे समय तक अमेरिकी शैक्षणिक संस्था के बीच एक मानक के रूप में स्थापित रहा है। "[1][मृत कड़ियाँ] हालांकि, इसके साथ ही अध्यक्ष ह्यूगो सोंनेनशाईन जैसे विश्वविद्यालय प्रशासकों ने यह तर्क दिया कि मुख्य पाठ्यक्रम को घटाना, वित्तीय और शैक्षिक रूप से अनिवार्य हो गया था क्योंकि विश्वविद्यालय के लिए अपने स्नातक विभाग में उचित संख्या में आवेदकों को आकर्षित कर पाना कठिन हो रहा था; ऐसा इसलिए था क्योंकि इसके अति विस्तृत कोर पाठ्यक्रम को "एक औसत 18 वर्षीय" द्वारा पसंद नहीं किया जा रह था (परिवर्तन का समर्थन करने वाले दल का ऐसा मानना था).
इसके अलावा जैसे-जैसे बीसवीं सदी में कई अमेरिकी स्कूलों के कोर पाठ्यक्रम में कमी आने लगी, कई छोटी संस्थाएं ऐसे कोर पाठ्यक्रम को अपनाने के लिए प्रसिद्ध हो गयीं जिनमें छात्र की लगभग पूरी स्नातक शिक्षा को समाहित किया जाता था और विज्ञान सहित सभी विषयों को पढ़ाने के लिए अक्सर पारंपरिक पश्चिमी सिद्धांतों के पाठ का उपयोग भी किया जाता था। संयुक्त राज्य अमेरिका का सेंट जॉन कॉलेज इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है। कोंकोर्डिया विश्वविद्यालय, इरविन (कैलिफोर्निया) ने भी 2010 से एक ऐसा ही पारंपरिक कोर पाठ्यक्रम लागू किया है।

वितरण संबंधी आवश्यकताएँ[संपादित करें]

कुछ कॉलेज वितरण आवश्यकताओं की एक प्रणाली का उपयोग करके निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट पाठ्यक्रम के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश करते हैं। ऐसी प्रणाली में छात्रों को विशेष श्रेणियों में कोर्स लेना आवश्यक होता है लेकिन वे इन श्रेणियों के भीतर अपनी पसंद से चुनाव कर सकते हैं।

खुला पाठ्यक्रम[संपादित करें]

अन्य संस्थाओं ने इन पाठ्यक्रम संबंधी प्रमुख आवश्यकताओं को लगभग पूरी तरह से समाप्त कर दिया है, उदाहरण के लिए, ब्राउन विश्वविद्यालय और कॉर्नेल विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम का चयन पूर्णतया छात्र के हाथ में होता है। एमहर्स्ट कॉलेज में छात्र को प्रथम-वर्ष सेमिनारों की सूची में से किसी एक को चुनना होता है लेकिन इसके लिए किसी कक्षा अथवा वितरण की आवश्यकता नहीं होती है।

शैक्षिक प्रौद्योगिकी

शैक्षिक प्रौद्योगिकी (अधिगम प्रौद्योगिकी भी कहा जाता है) उचित तकनीकी प्रक्रियाओं और संसाधनों के सृजन, उपयोग तथा प्रबंधन के द्वारा अधिगम और कार्य प्रदर्शन सुधार के अध्ययन और नैतिक अभ्यास को कहते हैं।[1] शैक्षिक प्रौद्योगिकी शब्द के साथ प्रायः अनुदेशात्मक सिद्धांत तथा अधिगम सिद्धांत संबद्ध और शामिल होते हैं। जबकि अनुदेशी प्रौद्योगिकी में अधिगम एवं अनुदेश की प्रक्रियाएं तथा प्रणालियां शामिल हैं, शैक्षिक प्रौद्योगिकी में मानवीय क्षमताओं के विकास हेतु प्रयुक्त अन्य प्रणालियां शामिल होती हैं। शैक्षिक प्रौद्योगिकी सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर और इंटरनेट अनुप्रयोगों तथा गतिविधियों का समावेश करती है किंतु इन तक सामित नहीं है। लेकिन इन शब्दों के अर्थ को लेकर अब भी बहस होती है।[2]

विवरण और अर्थ[संपादित करें]

शैक्षिक प्रौद्योगिकी को सर्वाधिक सरलता और सुगमता से ऐसे उपकरणों की एक सरणी के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो शिक्षार्थी के सीखने की प्रक्रिया में सहायक सिद्ध हो सकें. शैक्षिक प्रौद्योगिकी, प्रौद्योगिकी "शब्द" की एक व्यापक परिभाषा पर निर्भर करती है। प्रौद्योगिकी, मानव उपयोग की भौतिक सामग्रियों जैसे मशीनों या हार्डवेयर के रूप में संदर्भित की जा सकती है, लेकिन इसमें प्रणालियां, संगठऩ की विधियां तथा तकनीक जैसे व्यापक विषय भी शामिल हो सकते हैं। कुछ आधुनिक उपकरण शामिल हैं लेकिन ये सिर्फ ओवरहैड प्रोजेक्टर, लैपटॉप, कंप्यूटर और कैलकुलेटर तक ही सीमित नहीं हैं। "स्मार्टफोन" और गेम (ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों) जैसे नए उपकरण गंभीरता से अपनी अभिज्ञान क्षमता की वजह से काफी ध्यान आकर्षित करने लगे हैं।
जो वैचारिक खोज और आशय संप्रेषण के लिए शैक्षिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हैं वो या तो शिक्षार्थी हैं या शिक्षक हैं।
मानवीय कार्य-प्रदर्शन प्रौद्योगिकी हस्तपुस्तिका पर विचार करें.[3] सम विषयक क्षेत्रों, शैक्षिक और मानवीय कार्य-प्रदर्शन प्रौद्योगिकी के लिए प्रौद्योगिकी का अर्थ "व्यावहारिक विज्ञान है।" दूसरे शब्दों में, वैज्ञानिक पद्धति के उपयोग के द्वारा मौलिक शोध से व्युत्पन्न कोई भी प्रक्रिया या प्रक्रियाएं प्रौद्योगिकी मानी जा सकती हैं। शैक्षिक या मानवीय कार्य-प्रदर्शन प्रौद्योगिकी विशुद्ध रूप से कलनविधीय या स्वानुभविक प्रक्रियाओं पर आधारित हो सकती हैं, किंतु दोनों में से किसी का भी तात्पर्य आवश्यक रूप से भौतिक प्रौद्योगिकी से नहीं है। प्रौद्योगिकी शब्द यूनानी शब्द “टेक्ने” से बना है जिसका अर्थ है शिल्प या कला. एक अन्य शब्द "तकनीक" भी उसी मूल से आया है, जिसका उपयोग शैक्षिक प्रौद्योगिकी पर विचार करते समय किया जा सकता है। इसलिए शिक्षक की तकनीकों का समावेश करने के लिए शैक्षिक प्रौद्योगिकी का विस्तार किया जा सकता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]
1956 की ब्लूम की पुस्तक, टेक्सोनोमी ऑफ एजुकेशनल ऑवूजेक्टिव्ज शैक्षिक मनोविज्ञान के पाठ का एक उत्तम उदाहरण है।[4] ब्लूम की टेक्सोनोमी, अधिगम गतिविधियां अभिकल्पित करते समय, यह ध्यान में रखने के लिए उपयोगी हो सकती है कि शिक्षार्थियों के अधिगम लक्ष्य क्या हैं तथा उनसे क्या अपेक्षित है। बहरहाल, ब्लूम का कार्य स्पष्ट रूप से स्वतः ही शैक्षिक प्रौद्योगिकी से संबद्ध नहीं होता और शैक्षणिक रणनीतियों से अधिक संबंधित है।
कुछ के अनुसार, एक शैक्षिक प्रौद्योगविज्ञ वह है, जो आधारभूत शैक्षणिक एवं मनोवौज्ञानिक शोध को अधिगम अथवा अनुदेश हेतु साक्ष्य-आधारित प्रयुक्त विज्ञान (या प्रौद्योगिकी) में रूपांतरित कर देता है। शैक्षिक प्रौद्योगविज्ञों के पास प्रायः शैक्षिक मनोविज्ञान, शैक्षिक मीडिया, प्रयोगात्मक मनोविज्ञान, संज्ञानात्मक मनोविज्ञान या अधिक विशुद्ध रूप में, शैक्षिक, अनुदेशात्मक या मानवीय कार्य-प्रदर्शन प्रौद्योगिकी या अनुदेशात्मक (प्रणाली) अभिकल्पना के क्षेत्रों में स्नातक उपाधि (स्नातकोत्तर, डॉक्टरेट, पीएच.डी. या डी.फिल) होती है। लेकिन नीचे सूचीबद्ध कुछ सिद्धांतकारों में से कुछ हमेशा स्वयं अपना वर्णन करने के लिए "शिक्षक" जैसे शब्द पर वरीयता देते हुए "शैक्षिक प्रौद्योगविज्ञ" शब्द का प्रयोग करते थे।[कृपया उद्धरण जोड़ें] शैक्षिक प्रौद्योगिकी के एक कुटीर उद्योग से एक व्यवसाय में रूपांतरण के बारे में शुरविले, ब्राउन तथा व्हिटेकर ने चर्चा की है।[5]

एक लघु इतिहास[संपादित करें]

शैक्षिक प्रौद्योगिकी के उद्भव को उसकी राह में गुफाओं की दीवारों पर बनी पेंटिंग्स में बहुत ही प्रारंभिक उपकरणों के रूप में पाया जा सकता है। लेकिन आमतौर पर इसके इतिहास का आरंभ शैक्षिक फिल्म (1900 का) या 1920 के दशक की सिडनी प्रेस्से की यांत्रिक शिक्षण मशीन से माना जाता है। नई प्रौद्योगिकियों का बड़े पैमाने पर पहला उपयोग, प्रशिक्षण फिल्मों और अन्य मीडिया सामग्री के माध्यम से द्वित्तीय विश्वयुद्ध के अमेरिकी सैनिकों के प्रशिक्षण में पाया जा सकता है। आज की प्रस्तुतिकरण आधारित प्रौद्योगिकी इस विचार पर आधारित है कि लोग विषय वस्तु को श्रव्य और दृश्य अभिग्रहण से सीख सकते हैं, जो अनेक प्रारूपों में उपलब्ध है, जैसे- स्ट्रीमिंग ऑडियो और वीडियो, पॉवरपॉइंट प्रस्तुतिकरण + आवाज. 1940 के दशक का एक अन्य रोचक आविष्कार हाइपरटेक्स्ट, यानी वी. बुश का मेमेक्स था। 1950 के दशक ने दो प्रमुख स्थिर लोकप्रिय अभिकल्प दिये. स्किनर्स कार्य ने अनुदेशात्मक विषयवस्तु को छोटी इकाइयों में विभाजित कर, तथा सही अनुक्रियाओं को अक्सर जल्दी पुरस्कृत कर, "क्रमादेशित अनुदेशों" का व्यवहारजन्य लक्ष्यों के संरूपण पर ध्यान केंद्रित करना संभव बनाया. अपने बौद्धिक व्यवहारों के वर्गीकरण के आधार अधिगम के प्रति एक प्रवीण दृष्टिकोण की वकालत करते हुए, ब्लूम ने अनुदेशात्मक तकनीकों का समर्थन किया जिसने शिक्षार्थी की आवश्यकतानुसार अनुदेश एवं समय दोनों को परिवर्तित किया। 1970 के दशक से 1990 के दशक तक इन डिजाइनों पर आधारित मॉडल आम तौर पर कंप्यूटर आधारित प्रशिक्षण (सीबीटी (CBT)), कंप्यूटर सहायतायुक्त अनुदेश या कंप्यूटर की सहायता से अनुदेश (CAI) कहलाते थे। एक अधिक सरलीकृत रूप में वे आज के "ई-कंटेंट्स" जो कि अक्सर "ई-सेट अप" का मुख्य भाग होता है, जैसे थे है, कभी-कभी इसे वेब आधारित प्रशिक्षण (WBT) या ई-अनुदेश भी कहा जाता था। पाठ्यक्रम अभिकल्पक अधिगम सामग्री के, ग्राफिक्स और मल्टीमीडिया प्रस्तुति के साथ संवर्धित छोटे-छोटे पाठ-खंड बनाते हैं। आत्म मूल्यांकन और मार्गदर्शन के लिए तत्काल प्रतिक्रिया के साथ लगातार बहुविकल्पी प्रश्न जोड़े जाते हैं। ऐसी ई-सामग्री आईएमएस (IMS), एडीएल/स्कॉर्म (ADL/SCORM) और आईईईई (IEEE) द्वारा परिभाषित मानकों पर भरोसा करती है। 1980 और 1990 के दशकों ने विविध प्रकार की संस्थाएं, जिनको एक लेबल कंप्यूटर आधारित शिक्षा (CBL) की छतरी के नीचे रखा जा सकता है, दी . अक्सर रचनावादी और संज्ञानवादी अधिगम सिद्धांतों पर आधारित, इन परिवेशों ने अमूर्त एवं प्रक्षेत्र-विशिष्ट समस्या समाधान शिक्षण पर जोर दिया. पसंदीदा प्रौद्योगिकियां सूक्ष्म संसार (कंप्यूटर वातावरण जहां शिक्षार्थी खोज सकता था, निर्माण कर सकता था), अनुरूपण (कंप्यूटर वातावरण जहां शिक्षार्थी गतिशील प्रणालियों के मापदंडों के साथ खेल सकते हैं) और हाइपरटेक्स्ट थे। शिक्षा के क्षेत्र में डिजीटल संचार और नेटवर्किंग 80 के दशक के मध्य में शुरू हुए और 90 के दशक के मध्य में, विशेषकर विश्वव्यापी वेब (www), ईमेल तथा मंचों (फोरम्स) के माध्यम से लोकप्रिय हुए. ऑनलाइन अधिगम के दो प्रमुख प्रारूपों में अंतर है। कंप्यूटर आधारित प्रशिक्षण (सीबीटी) या कंप्यूटर आधारित अधिगम (CBL), पूर्व के इन दोनों ही प्रकारों ने एक ओर छात्र और कंप्यूटर अभ्यास एवं अनुशिक्षण तथा दूसरी ओर छात्र और सूक्ष्म संसार एवं अनुरूपण पर जोर दिया. आज, कंप्यूटर के माध्यम से संचार (CMC) नियमित विद्यालय प्रणाली में प्रचलित रूपावली है, जहां छात्र एवं अनुदेशकों के बीच पारस्परिक क्रिया का प्राथमिक प्रारूप कंप्यूटर के माध्यम से है। आमतौर पर सीबीटी/सीबीएल (CBT/CBL) का मतलब है वैयक्तीकृत अधिगम (स्व-अध्ययन), जबकि सीएमसी (CMC) में शिक्षक/निजी शिक्षक सुविधा शामिल है और लचीली शिक्षण गतिविधियों के मानसदर्शन की आवश्यकता है। इसके अलावा, आधुनिक आईसीटी (ICT) उपकरणों के साथ, अधिगम समूहों और संबद्ध ज्ञान प्रबंधन कार्य को बनाए रखने के लिए शिक्षा प्रदान करता है। यह छात्र और पाठ्यक्रम प्रबंधन के लिए उपकरण भी उपलब्ध कराता है। अधिगम प्रौद्योगिकियां कक्षा संवर्द्धन के अलावा, पूर्णकालिक दूरस्थ शिक्षण में भी प्रमुख भूमिका निभाती हैं। जबकि अधिकांश गुणवत्ता की पेशकश कागज, वीडियो और सामयिक सीबीटी/सीबीएल (CBT/CBL) सामग्री पर भरोसा करती हैं, मंचों, तत्क्षण संदेशों, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग आदि के माध्यम से ई-शिक्षण का उपयोग बढ़ा है। छोटे समूहों को लक्ष्यित पाठ्यक्रम अक्सर मिश्रित या संकर अभिकल्पना जिसमें वर्तमान पाठ्यक्रम मिश्रित होता है, का दूरस्थ गतिविधियों के साथ उपयोग करते हैं (प्रायः मॉड्यूल के आरंभ और अंत में) और विभिन्न शैक्षणिक शैलियों (जैसे प्रशिक्षण अभ्यास और अभ्यास, कवायद, परियोजनाएं, आदि) का उपयोग करते हैं। 2000 के दशक में बहुगुण मोबाइल तथा सर्वव्यापी प्रौद्योगिकियों के उद्भव ने अधिगम- के-संदर्भ परिदृश्यों के अनुकूल स्थानिक अधिगम को नई प्रेरणा दी. कुछ साहित्य स्कूल एवं प्रामाणिक (उदाहरण के लिए कार्यस्थल) व्यवस्था दोनों को एकीकृत करने वाले मिश्रित अधिगम परिदृश्यों का वर्णन करने के लिए एकीकृत अधिगम अवधारणा का उपयोग करते हैं।

Online Examination

Online assessment is the process used to measure certain aspects of information for a set purpose where the assessment is delivered via a computer connected to a network. Most often the assessment is some type of educational test. Different types of online assessments contain elements of one or more of the following components, depending on the assessment's purpose: formative, diagnostic, or summative. Instant and detailed feedback, as well as flexibility of location and time, are just two of the many benefits associated with online assessments. There are many resources available that provide online assessments, some free of charge and others that charge fees or require a membership.

Purpose of assessments[edit]

Assessments are a vital part of determining student achievement. They are used to determine the knowledge gained by students and to determine if adjustments need to be made to either the teaching or learning process.[1]:80–82

Types[edit]

Online assessment is used primarily to measure cognitive abilities, demonstrating what has been learned after a particular educational event has occurred, such as the end of an instructional unit or chapter. When assessing practical abilities or to demonstrate learning that has occurred over a longer period of time an online portfolio (or ePortfolio) is often used. The first element that must be prepared when teaching an online course is assessment. Assessment is used to determine if learning is happening, to what extent and if changes need to be made.[1]:79
Independent Work

Most students will not complete assignments unless there is an assessment (i.e. motivation). It is the instructors role to catalyze student motivation. Appropriate feedback is the key to assessment, whether or not the assessement is graded.[1]:83–86
Students are often asked to work in groups. With this brings on new assessment strategies. Students can be evaluated using a collaborative learning model in which the learning is driven by the students and/or a cooperative learning model where tasks are assigned and the instructor is involved in decisions.[1]:86–89

Uses of online assessments[edit]

Pre-Testing - Prior to the teaching of a lesson or concept, a student can complete an online pretest to determine their level of knowledge. This form of assessment helps determine a baseline so that when a summative assessment or post-test is given, quantitative evidence is provided showing that learning has occurred.
Formative Assessment - Formative assessment is used to provide feedback during the learning process. In online assessment situations, objective questions are posed, and feedback is provided to the student either during or immediately after the assessment.
Summative Assessment - Summative assessments provide a quantitative grade and are often given at the end of a unit or lesson to determine that the learning objectives have been met.
Practice Testing - With the ever-increasing use of high-stakes testing in the educational arena, online practice tests are used to give students an edge. Students can take these types of assessments multiple times to familiarize themselves with the content and format of the assessment.
Surveys - Online surveys may be used by educators to collect data and feedback on student attitudes, perceptions or other types of information that might help improve the instruction.
Evaluations - This type of survey allows facilitators to collect data and feedback on any type of situation where the course or experience needs justification or improvement.
Performance Testing - The user shows what they know and what they can do. This type of testing is used to show technological proficiency, reading comprehension, math skills, etc. This assessment is also used to identify gaps in student learning.
New technologies, such as the Webdigital video, sound, animations, and interactivity, are providing tools that can make assessment design and implementation more efficient, timely, and sophisticated.

Academic dishonesty[edit]

Academic dishonesty, commonly known as cheating, occurs in all levels of educational institutions. In traditional classrooms, students cheat in various forms such as hidden prepared notes not permitted to be used or looking at another student’s paper during an exam, copying homework from one another, or copying from a book, article or media without properly citing the source. Individuals can be dishonest due to lack of time management skills, pursuit for better grades, cultural behavior or a misunderstanding of plagiarism.[1]:89
Online classroom environments are no exception to the possibility of academic dishonesty. It can easily be seen from a student’s perspective as an easy passing grade. Proper assignments types, meetings and projects can prevent academic dishonesty in the online classroom.[1]:89–90 However online assessment may provide additional possibilities for cheating, such as hacking.[2]
Two common types of academic dishonesty are identity fraud and plagiarism.
Identity fraud can occur in the traditional or online classroom. There is a higher chance in online classes due to the lack of proctored exams or instructor-student interaction. In a traditional classroom, instructors have the opportunity to get to know the students, learn their writing styles or use proctored exams. To prevent identity fraud in an online class, instructors can use proctored exams through the institutions testing center or require students to come in at a certain time for the exam. Correspondence through the phone or video conferencing techniques can allow an instructor to become familiar with a student through their voice and appearance. Another option would be personalize assignments to students backgrounds or current activities. This allows the student to apply it to their personal life and gives the instructor more assurance the actual student is completing the assignment. Lastly, an instructor may not make the assignments heavily weighted so the students do not feel as pressured.[1]:89–90
Plagiarism is the misrepresentation of another person’s work. It is easy to copy and paste from the internet or retype directly from a source. It is not only the exact wordage, but the thought or idea.[1]:90 It is important to learn to properly cite a source when using someone else’s work.

Grading

Grading in education is the process of applying standardized measurements of varying levels of achievement in a course. Another way the grade point average (GPA) can be determined is through extra curricular activities. Grades can be assigned as letters (generally A through F), as a range (for example 1 to 6), as a percentage of a total number of questions answered correctly, or as a number out of a possible total (for example out of 20 or 100).
In some countries, all grades from all current classes are averaged to create a Grade Point Average (GPA) for the marking period. The GPA is calculated by taking the number of grade points a student earned in a given period of time of middle school through high school.[1] GPAs are also calculated for undergraduate and graduate students in most universities. The GPA can be used by potential employers or educational institutions to assess and compare applicants. A cumulative grade point average is a calculation of the average of all of a student's total earned points divided by the possible amount of points. This grading system calculates for all of his or her complete education career.

History[edit]

Yale University historian George W. Pierson writes: "According to tradition the first grades issued at Yale (and possibly the first in the country) were given out in the year 1785, when President Ezra Stiles, after examining 58 Seniors, recorded in his diary that there were 'Twenty Optimi, sixteen second Optimi, twelve Inferiores (Boni), ten Pejores.'"[2] Bob Marlin argues that the concept of grading students' work quantitatively was developed by a tutor named William Farish and first implemented by the University of Cambridge in 1792.[3] Hoskin's assertion has been questioned by Christopher Stray, who finds the evidence for Farish as the inventor of the numerical mark to be unpersuasive.[4] Stray's article elucidates the complex relationship between the mode of examination (testing), in this case oral or written, and the varying philosophies of education these modes imply, both to teacher and student. As a technology, grading both shapes and reflects many fundamental areas of educational theory and practice.

International grading systems[edit]

Most nations have individual grading systems unique to their own schools. However, several international standards for grading have arisen recently.
Main article: European Baccalaureate

GCSE[edit]

In the General Certificate of Secondary Education (GCSE) exam taken by secondary school students, grades generally range from A* (highest) to F. However, in some GCSE qualifications, there are two tiers (higher and foundation). In the higher tier, grades A* to D can be achieved, while in the foundation tier, only grades C to G can be awarded.[5] Generally a C or above would be considered a pass and a D or below would be considered a fail.

Grading systems by country[edit]

GPA in the U.S. job market[edit]

According to a study published in 2014, a one-point increase in high-school GPA translated to an 11.85% increase in annual earnings for men and 13.77% for women in the United States.[6]
College and post-college students often wonder how much weight their GPA carries in future employment. In the various broadly defined professions as a whole, internships and work experience gained during one's time in college are easily the most important factors that employers consider. In order of importance, the remaining factors are choice of majorvolunteering, choice of extracurricular activity, relevance of coursework, grade point average and the reputation of one's college. The relative importance of these factors do vary somewhat between professions, but in all of them, a graduate's GPA is relatively low on the list of factors that employers consider.[7]
There is also criticism about using grades as an indicator in employment. Armstrong (2012) claimed that the relationship between grades and job performance is low and becoming lower in recent studies.[8] The grade inflation that has plagued American colleges over recent decades has also played a role in the devaluation of grades.[9]